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अभिव्यक्ति का व्याकरण
चूंकि हमारे व्यक्तित्व की रचना व्यक्त और अव्यक्त भागों से मिल कर पूर्ण होती है इसलिए व्यक्त या अभिव्यक्त अकेले ही समस्त को नहीं बता पाता . परदुनिया में जो अभिव्यक्त है उसी का बोलबाला रहता है. अभिव्यक्ति का महत्त्व इसलिए भी है कि जो व्यक्त है वह प्रकट हो कर न केवल दूसरों तक… Read more
स्वतंत्रता का दायित्व
गिरीश्वर मिश्र
स्वतंत्रता सभी प्राणियों को प्रिय होती है. इसके विपरीत पराधीन होना तो ऐसी स्थिति होती है कि उसमें सपनों में भी सुख नसीब नहीं होता. गोस्वामी तुलसीदास जी के शब्दों में कहें तो पराधीन सुख सपनेहुं नाहीं. प्रतिबंध होने या हस्तक्षेप होने पर हमारे कर्तापन में विघ्न पड़ता है. ऐसी स्थिति में हम जो चाहते हैं और जैसा चाहते हैं वैसा नहीं कर पाते हैं. इसलिए कोई बंधन नहीं चाहता है क्योंकि उससे कार्य या आचरण की परिधि सीमित हो जाती है. पर थोड़ा विचार करने पर लगता है कि स्वतंत्र होने की भी शर्त होती है और निरपेक्ष रूप में स्वतंत्रता भ्रम ही होती है. सृष्टि की रचना ही ऐसी है कि उसके अंतर्गत विद्यमान विभिन्न स्तर एक दूसरे से जुड़े होते हैं. ग्रह, नक्षत्र,और आकाशगंगाएं सभी एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं . हमारे देवी देवता भी एक दूसरे से जुड़े हुए हैं. एक की स्थिति दूसरे की स्थिति पर निर्भर होती है. आदमी चांद पर इसीलिए उतर सका कि पृथ्वी और चंद्रमा अपने संचालन में कुछ नियमों का पालन करते हैं. ऐसी स्थिति अव्यवस्था या ‘कयास’ की हो जायगी जैसे संगीत के लिए सुर और ताल के नियम मौजूद होने पर कर्णप्रिय माधुर्य आता है अन्यथा कोलाहल या शोर पैदा होने लगता है जो हम कभी नहीं चाहते हैं. हां संगीत के नियमों की परिधि में रहते हुए कलाकार को नई धुन या राग रचने की छूट जरूर होती है. कथा या काव्य में सृजन की स्वतंत्रता तो होती है पर शब्दों के चयन और उपयोग का एक विहित और स्वीकृत क्रम होता है. संवाद और सार्थक संचार हो इसके लिए साझे के कुछ नियमों पर सहमति होनी आवश्यक होती है. तात्पर्य यह कि स्वतंत्रता हमेशा सापेक्ष होती है और उसे बनाए रखने में ही सबका कल्याण होता है. उससे छूट लेने के दुष्परिणाम होते हैं.
अत: तथ्य यही प्रतीत होता है कि किसी भी अस्तित्ववान इकाई का पूर्णत: स्वतंत्र अस्तित्व नहीं होता है. अस्तित्व में आना स्वतंत्रता खोना होता है. शायद इसीलिए स्वतंत्र ब्रह्म को अमूर्त और अवर्णनीय कहा गया जो सर्वथा पूर्ण होता है. (उसे भी साकार होकर भक्त के अधीन होना पड़ता है ! ). यदि सामान्य जगत में सभी स्वतंत्र हो जांय,यानी किसी का किसी से कोई लेना देना न हो तो फिर कुछ भी करना संभव नहीं हो सकेगा. कुछ भी घटित होने के लिए वियोग नहीं योग की जरूरत पड़ती है. जुड़ने का अर्थ है जो जुड़ रहे हैं उनकी अपनी अपनी स्वतंत्रता में कटौती. यह अवश्य संभव है कि वे मिल कर पहले से अधिक स्वतंत्रता का अनुभव कर सकें. जीवन की स्थितियां ही ऐसी होती हैं कि यदि स्वतंत्र होने से मुक्ति मिलती है तो मुक्ति के साथ खुद ब खुद जिम्मेदारी आ जाती है. परतंत्र होने पर जिन कामों की जिम्मेदारी से हमें कुछ भी लेना-देना नहीं होता है वे काम हमारे सिर पर आ जाते हैं. अत: वास्तविकता यही है कि कोई भी स्वतंत्रता निरपेक्ष नहीं होती है.
राजनैतिक स्वतंत्रता मिले सात दशक बीतने को आए. नागरिक के रूप में जिन मानकों के पालन की अपेक्षा थी उन पर हम पूरी तरह कामयाब नहीं दिखते. समता, समानता और अवसरों की उपलब्धता की दृष्टि से अभी लम्बी दूरी तंय करनी है. देश में स्वतंत्रता का भाव प्राय: उन्मुक्तता का हो रहा है जो गाहे बगाहे स्वच्छंदता का रूप ले लेती है. सामाजिक और नैतिक आचरण की दृष्टि से बहुत कुछ अशोभन हो रहा है. अपराधों के आंकड़े भयावह हो रहे हैं. समय कुसमय हिंसा और आक्रोश का उबाल दिन प्रतिदिन जन जीवन को अस्त-व्यस्त करने वाला होता जा रहा है. सामाजिक सहिष्णुता, साझेदारी और पारस्परिक भरोसे की दृष्टि से भी बहुत कुछ करने को शेष है. चारित्रिक बल पर ही कोई समाज आगे बढता है. आज वैश्विकता, बाजार और भौतिक समृद्धि के प्रबल आकर्षण के आगोश में आते हुए हमारे मानवीय सरोकार दुर्बल होते जा रहे हैं. सामाजिक परिवर्तन की यह दिशा आत्म मंथन के लिए प्रेरित करती है. शिक्षा, मीडिया और सामाजिक आचरण में नैतिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए प्रयास अनिवार्य है और इसके लिए सरकारी और गैर सरकारी, राजनैतिक और गैर राजनैतिक हर तरह की कोशिश शुरू की जानी चाहिए. स्वतंत्रता दिवस इस दृष्टि से एक आर्थिक ही नहीं नैतिक दृष्टि से भी सबल राष्ट्र के लिए संकल्प लेने का अवसर है.

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